मधेपुरा: बीएनएमवी कॉलेज, साहुगढ़, मधेपुरा में आयोजित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सेमिनार भारत की स्वतंत्रता संग्राम, जैव विविधता संरक्षण एवं पारंपरिक आदिवासी ज्ञान में जनजातियों का योगदान में आदिवासियों का इतिहास, संस्कृति और विजयन का अदभुत संगम दिखा. सेमिनार का आयोजन राष्ट्रीय सेवा योजना (एनएसएस), आईक्यूएसी एवं डिपार्टमेंट ऑफ बॉटनी के संयुक्त तत्वावधान में किया गया. डीहाइब्रिड मोड में आयोजित इंटरनेशनल सेमिनार में देश विदेश के विद्वानों ने आदिवासियों के योगदान से सीख लेने की बात कही. वक्ताओं ने 17वीं सदी से लेकर आज तक आदिवासियों के इतिहास को रेखांकित किया. साथ ही कहा कि आदिवासियों के योगदान को इतिहास में कमतर आंका गया है. जरूरत है इसे व्यापक रूप प्रदान कर उनके योगदान से सीख लेने की जरूरत है. सेमिनार में कई टेक्निकल सेशन आयोजित किए गए. सभी सेशन में विभिन्न क्षेत्रों के विद्वानों का स्पीच हुआ. टेक्निकल सेशन में आरएम कॉलेज सहरसा के प्राचार्य प्रो. गुलरेज़ रौशन रहमान के व्याख्यान का विषय था भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बिरसा मुंडा की भूमिका: राजनीतिक, समाज-सांस्कृतिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय परिप्रेक्ष्य. उन्होंने कहा कि बिरसा मुंडा का उलगुलान केवल विद्रोह नहीं, बल्कि जल–जंगल–जमीन की लड़ाई का संगठित रूप था. उन्होंने इसे भारत का पहला इको-रिवोल्यूशन बताया, जिसने पूरे देश में प्रतिरोध की नई चेतना उत्पन्न की. प्रो. गुलरेज रौशन रहमान ने कहा कि संथाल विद्रोह (1855–56) और राम्पा विद्रोह (1879–80) को भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण स्तंभ है. जनजातीय समुदायों की संघर्ष-गाथा राष्ट्रीय आंदोलन की जनाधार थीं. उन्होंने कहा कि सरहुल, करमा जैसे पर्व केवल धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि प्रकृति और कृषि संरक्षण के पारंपरिक मॉडल हैं. इन्हीं त्योहारों में सदियों से पर्यावरण शिक्षा का संदेश समाहित रहा है. बिरसा मुंडा ने वन उपज, मिश्रित खेती और एग्रोफॉरेस्ट्री को बढ़ावा देकर सस्टेनेबल डेवलपमेंट की नींव रखी. उन्होंने कहा कि आज दुनिया जिस ग्रीन इकोनॉमी की बात कर रही है, आदिवासी समाज उसे पीढ़ियों से अपनाकर चला आ रहा है. वक्ता ने बताया कि आदिवासियों की सैकरेड ग्रोव्स की परंपरा वनस्पतियों और दुर्लभ प्रजातियों को संरक्षित रखने का प्राकृतिक तरीका है. यह जैव विविधता संरक्षण का ऐसा मॉडल है, जिसे आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है. उन्होंने कहा कि औषधीय पौधों और प्राकृतिक उपचार पद्धतियों का गहन ज्ञान बिरसा मुंडा को आम जनता से जोड़ता था. साल वृक्ष जैसी प्रमुख प्रजातियों का संरक्षण उनकी पर्यावरणीय दृष्टि को स्पष्ट प्रदर्शित करता है. शोधार्थियों ने खूब सराहा—व्याख्यान में दिखा इतिहास, तकनीक और चेतना का संगम सभी विद्वानों ने प्रो. गुलरेज़ रौशन के प्रस्तुतीकरण की सराहना करते हुए कहा कि यह व्याख्यान न केवल ऐतिहासिक था, बल्कि आधुनिक तकनीक, शोध और सांस्कृतिक चेतना का अद्भुत मिश्रण भी था. सभागार तालियों से गूंज उठा.अमेरिका से ऑनलाइन जुड़े रिषभ आर्यन ने कहा कि सात सौ प्रकार के जनजातीय हैं जिनमें 350 तरह की बोलियां या भाषा है. सभी भाषाएं पर्याप्त रूप से संरक्षित नहीं है. ये भाषाएं विलुप्त हो रही है. उन्होंने कहा कि इन भाषाओं को संरक्षित करने के लिए आर्टिसिफिसियल इंटेलीजेंट का सहारा लिया जा सकता है. आदिवासियों के वनस्पति, स्वास्थ्य, जड़ी बूटी की जानकारी को इन भाषाओं से संरक्षित और समृद्ध किया जा सकता है. सेमिनार में डॉ. भूपेंद्र नारायण यादव मधेपुरी ने कोसी के समाजवादी नेताओं के योगदान की जानकारी दी. उन्होंने भूपेंद्र नारायण मंडल सरीखे नेताओं के कृतित्व और व्यक्तित्व पर चर्चा की. अंतिम तकनीकी सत्र में बीएनएमयू के जूलॉजी के अध्यक्ष प्रो. नरेंद्र श्रीवास्तव ने अनुवांशिक विविधता पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा कि 1923 में शोध प्रकाशन के बाद अनुवांशिक के आधार पर यह प्रमाणित होता है. उन्होंने कहा कि भारत एवं साउथ एशिया के सभी समुदाय में सामान्य जीन का विन्यास प्राप्त होता है. उन्होंने कहा कि यह सभी समुदाय सिंधु घाटी सभ्यता के समान मानव से ही विकसित हुए हैं. उन्होंने कहा कि जाति और गोत्र का वर्गीकरण है. उनका आधार वैज्ञानिक न होते हुए सामाजिक राजनीतिक है. सेमिनार में प्रॉक्टर डॉ. इम्तियाज अंजुम, डॉ. पंचानंद मिश्र, डॉ. अमरेंद्र कुमार, डॉ. चंद्र प्रकाश सिंह, बांग्लादेश से डॉ. विनय चक्रवर्ती, पटना से राजीव कमल कुमार, पटना यूनिवर्सिटी से प्रो. विनय सोरेन, नेपाल से डॉ. टेक बहादुर गुरुंग, बरेली से कोमल मिश्र, डॉ. सुधांशु शेखर, प्रो. अरुण कुमार, डॉ. बीएन विवेका सहित अन्य मौजूद रहे.
(रिपोर्ट:- ईमेल)
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